चित्र: क्रांतिवीर महाराजा देवीबक्श सिंह
गोंडा / लखनऊ : संसार के मानचित्र पर सर्वाधिक पुरातन देश के रूप में विद्यमान भारत महादेश के अनेकानेक दुर्भाग्यो में से एक यह भी है कि हमने मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले वीर – बलिदानियों की हमेशा उपेक्षा किया है। गोंडा के अंतिम महाराजा एवं प्रथम जनक्रांति 1857 में कंपनी सरकार के लिए काल साबित हुए क्रांतिनायक महाराजा देवीबक्श सिंह ऐसे ही उपेक्षित महापुरुष है जिनके योगदान को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला जिसके वे पात्र थे।आधुनिक देवीपाटन मंडल के गांव – गांव में जालिम फिरंगियों के विरुद्ध क्रांति का शंखनाद करने वाले महाराजा देवीबक्श सिंह को उचित सम्मान दिलाने के लिए देवीपाटन मंडल के जनप्रतिनिधियों ने हमेशा उदासीनता बरती.1857 की प्रथम जन क्रांति, स्वतंत्रता संघर्ष, भारत का इतिहास एक बेहद राष्ट्रीय महत्त्व का विषय है। भारत महादेश के अतीत में हुए विभिन्न युद्धों में पराजयों के कारणों को जानना बेहद आवश्यक हैं। मातृभूमि पर परदेशी ताकतों द्वारा बल और छल के बूते जो लगातार गहरे जख्म दिए गए वह बेहद दु:खद हैं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष को नए सिरे से समझने का प्रयास इसलिए किया जाना चाहिए कि आखिरकार सात समुंदर पार से व्यापार के लिए आए मुठ्ठी भर परदेशियों ने कैसे इतने बड़े देश पर कब्जा कर लिया और जिसके लिए इतना बड़ा महायुद्ध लड़ना पड़ा जिसका मूल्य एक करोड़ से ज्यादा देशी नागरिको को अपना बलिदान देकर चुकाना पड़ा। जनक्रांति की उर्वर भूमि रहे अवध के इतिहास के पन्नो में प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में यहां के योगदान को तलाशा जाय तब क्रांतिवीर महाराजा देवीबक्श सिंह के रूप में एक ऐसे अध्याय से परिचित हुआ जा सकता है जो स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में एक स्वर्णिम हस्ताक्षर है।
क्रांतिवीर महाराजा देवीबक्श सिंह का प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में योगदान
1836 में गोंडा रियासत के सिंहासन पर बैठे देवीबक्श सिंह ने महाराजा बनते ही तमाम आर्थिक – सामाजिक कल्याण के कार्य करने लगे। अपने पुरखों की परम्परा को बनाए रखते हुए लोक कल्याणकारी कार्य करते हुए वे धीरे – धीरे जनता के बीच बहुत लोकप्रिय होने लगे। यह वह दौर था जब 23 जून 1757 को प्लासी के मैदान में ( आधुनिक पश्चिमी बंगाल में स्थित ) रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने भारतीय पक्ष को पराजित कर दिया था और इसके बाद देश में धीरे – धीरे कंपनी सरकार का शिकंजा एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक मजबूत हो रहा था। कंपनी सरकार ने लोकप्रिय महाराजा देवीबक्श सिंह को कई बार संदेश भेजा कि आकर मिलो लेकिन उन्होंने किसी भी रूप में फिरंगियों के समक्ष झुकने से इंकार कर दिया। इसके अलावा महाराज ने अवध और महादेश के दूसरे हिस्सों के विद्रोहियों से समन्वय स्थापित करना शुरू कर दिया। गोंडा नरेश देवीबक्श सिंह को घेरने के लिए 5 मार्च 1857 को आधुनिक बस्ती – गोंडा जिले की सीमा पर लोलपुर लमती में ईस्ट इण्डिया कंपनी के कमांडर रोक्राफ्ट ने मोर्चा लगा दिया। इसका जबाब देशी हथियारों : तीर – तलवार, कटार, गैंती, भाला – बल्लम , कुदाल, टेंगारी आदि के अलावा बंदूक – तोप से सज्जित महाराजा देवीबक्श सिंह की फौज ने कमांडर रोक्राफ्ट की अगुवाई वाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेना को पराजित करके दिया। इस लड़ाई में महाराजा देवीबक्श सिंह के साथ चर्दा रियासत ( बहराइच ) के राजा जोत सिंह , ताल्लुकेदार अशरफ बक्श , क्रांतिकारी मेंहदीहसन ( मोहम्मद हसन ) आदि ने कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग किया। करारी हार से बौखलाई कंपनी सरकार की प्रशिक्षित फौज ने 17 एवं 25 अप्रैल 1858 को महाराजा देवीबक्श सिंह के नेतृत्व वाली गोंडा – बहराइच की संयुक्त सेना पर भीषण हमला कर दिया।अप्रैल 1858 में हुए इन दोनों युद्धों में कंपनी सरकार को पराजय सामना करना पड़ा। इन युद्धों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सैनिकों के साथ – साथ गोंडा – बहराइच की सामान्य जनता भी महाराजा गोंडा के साथ आ खड़ी हुई। इन आम लोगों , जिसमें किसान – मजदूर , कामगार सहित दूसरे श्रमजीवी लोग शामिल थे,ने इन युद्धों को लोकयुद्ध बना दिया। महाराजा देवीबक्श सिंह से युद्ध में कई बार मिली पराजय से क्रुद्ध कंपनी सरकार की सेना ने उनको पूर्णतया नष्ट करने का निर्णय ले लिया क्योंकि लगातार पराजय से फिरंगी बहुत बेइज्जत महसूस कर रहे थे। इसके अलावा जिस समय भारतीय उप महाद्वीप में फिरंगी प्रथम जनक्रांति 1857 का दमन कर रहे थे तब ‘ लंदन टाइम्स ’ का रिपोर्टर विलियम रसल अवध आया हुआ था और यही से उसने महाराजा गोंडा देवीबक्श सिंह के शौर्य – पराक्रम पर खबरे लिखी जिससे उनकी ख्याति भारत के बाहर भी फैल गई। उनकी कीर्ति ने ही उनके विरुद्ध फिरंगियों द्वारा सशक्त घेराबंदी की पृष्ठभूमि तैयार कर दिया।
इसके बाद ही कंपनी सरकार ने क्रांतिकारियों के दमन के लिए बेहद कुख्यात माने जाने वाले जनरल होपग्रांट को मैदान में उतार दिया। फिरंगी स्वभाव से पूर्व के आक्रमणकारियों से भी ज्यादा धूर्त थे।वे कोई धर्म युद्ध तो लड़ते नहीं थे,उनको बस युद्ध जीतना होता था और इसके लिए वे हर तरह का षडयंत्र रचते रहते थे। उन्होंने आगे के युद्ध में तरह – तरह की धूर्तता किया। उसने छलपूर्वक महाराजा देवीबक्श सिंह की फौज के लिए भोजन सामग्री देने वाले कर्मचारी को मिला लिया। इसके बाद 27 नवंबर 1858 को जनरल होपग्रांट के नेतृत्व में कंपनी सरकार की फौज ने नबाबगंज में महाराजा देवीबक्श सिंह के विरुद्ध हमला बोल दिया।युद्ध लोलपुर लमती की सीमाओं से निकलकर नबाबगंज, बनगांव, मछली गांव ,बनकसिया – जिगना किला के विस्तृत क्षेत्र में फैल गया।सीमित संसाधनों एवं युद्ध कला में अप्रशिक्षित होने और भोजन तक न मिलने के बावजूद क्रांतिकारी सेना ने जनरल होपग्रांट जैसे कुशल सेनापति के नेतृत्व में अत्याधुनिक युद्ध सामग्री से सज्जित कंपनी सरकार की फौज को करारी टक्कर दिया। महाराजा देवीबक्श सिंह और उनकी सेना ने गोरों को नाकों चने चबवा दिया। इसके बाद 3 दिसंबर 1858 को पुन: महाराजा देवीबक्श सिंह की जबरदस्त तरीके से चौतरफा घेराबंदी कर जोरदार हमला बोला गया।कंपनी सरकार की सेना के इशारे पर उनके रसद संबंधी जिम्मेदारी निभाने वाले कर्मचारी कृष्ण दत्त पाण्डेय द्वारा भोजन – पानी भी रोक दिया गया जिससे क्रांतिकारी सेना के पांव उखड़ गए। 27नवंबर और 03 दिसंबर की लड़ाईयों में लगभग 20 हजार क्रांतिकारियों को अपना बलिदान देना पड़ा। इसके बाद महाराजा देवीबक्श सिंह को युद्ध भूमि में पीछे हटना पड़ा और वे लगभग 1000 चुनिंदा सैनिकों के साथ मछली गांव , बनकसिया के किले से होते हुए रात में राप्ती नदी को पार किया और अपने ही परिवार से संबद्ध भिनगा रियासत ( बहराइच) के राजमहल में विश्राम किया।चूंकि बहराइच की इकौना, भिनगा, गंगवल , बौंडी , इकौना ,चरदा , रेहुआ आदि रियासते कंपनी सरकार के आक्रोश के निशाने पर थी इसलिए वे भिनगा के राजमहल में ज्यादा दिन तक नहीं ठहरे और वहां से क्रांतिनायक महाराजा देवीबक्श सिंह को अपनी मातृभूमि भारत महादेश को सदा के लिए छोड़कर नेपाल – भारत की सीमा पर तराई के इलाके दांग और देवखुर की घाटी में जाने के लिए विवश होना पड़ा और जहां से उन्होंने छापामार शैली में फिरंगी सरकार के खिलाफ युद्ध जारी रखा , जिसके बारे में कहा जाता था कि इनके राज में सूरज नहीं डूबता था। और अंत में एक दिन वहीं नेपाल की धरती से यह संसार छोड़कर चले गए।
महाराजा देवीबक्श सिंह , राणा बेनीमाधव सिंह ,राजा लाल माधव सिंह की संयुक्त सेना से पराजित हुआ था कर्नल हंट
प्रथम जनक्रांति 1857 के अमूल्य हस्ताक्षर महाराजा देवीबक्श सिंह की कंपनी सरकार ने ऐसे ही चौतरफा घेराबंदी नहीं किया था बल्कि इसके पीछे उनके द्वारा आधुनिक देवीपाटन मंडल और अवध के इलाके में फिरंगियों को कई बार मात देना और उनकी प्रत्येक चाल को विफल कर देने से उपजा प्रतिशोध भी था। गोंडा के पड़ोस का जिला है फैजाबाद ( वर्तमान श्री अयोध्या जी जनपद ) और नवाबगंज, गोंडा जनपद के बीच सरयू नदी बहती है , गोंडा की ओर से आने पर जहां ठेंढी नदी वाला पुल आता है , उसी के निकट गोंडा जिले की सीमा समाप्त हो जाती हैं। फैजाबाद में एक बुजुर्ग महिला ‘ खुर्शीदमहल बेगम ’ रहती थी जो नबाब आसफफुद्दौला की माता थी। कंपनी सरकार के खुफिया विभाग से सम्बद्ध मार्टिन नामक एक फिरंगी कर्मचारी ने कर्नल हंट को यह लिखित सूचना दिया कि खुर्शीदमहल बेगम संख्या लेकर उस मकबरे को घेर लिया जिस पर बूढ़ी खुर्शीदमहल बेगम कर्नल हंट के समक्ष बहुत रोई – गिड़गिड़ाई कि उनके खजाने को छोड़ दिया जाय लेकिन उसने अपने सैनिकों को पूरा खजाना लूटने का आदेश दिया। लूटे गए खजाने की अनुमानित कीमत 80 लाख रूपए से ज्यादा की थी , इसके अलावा अशर्फियां भी लूटी गई , साथ में सैनिकों ने खुर्शीदमहल बेगम और वहां उपस्थित लोगों की बहुत बेइज्जती किया।
इस घटना से महाराजा देवीबक्श सिंह अत्यंत क्रोधित हुए और फैजाबाद एवं निकटवर्ती जिलों में यह संदेश चला गया कि फिरंगी कभी भी किसी के जान – माल को लूट सकते है। इसके बाद कंपनी सरकार के प्रति आक्रोशित क्रांतिकारियों ने सरयू नदी के किनारे वासुदेव घाट पर झाऊ के जंगल में एक गोपनीय बैठक किया जिसमे महाराजा देवीबक्श सिंह , शंकरपुर, रायबरेली के राजा राणा बेनीमाधव सिंह , अमेठी के राजा लाल माधव सिंह , अयोध्या के बाबा राम चरण दास – अमीर अली के साथ – साथ महाराजा देवीबक्श सिंह की सेना की फैजाबाद इकाई की कमान संभालने वाले शंभू प्रसाद शुक्ला , अच्छन खान , बुझावन पाण्डेय आदि की प्रमुख रूप से भागीदारी थी। इसी बैठक में यह तय हुआ था कि कम्पनी सरकार से अब आर – पार की लड़ाई लड़ी जाए। जिस समय अर्थात मार्च 1858 से पूर्व जब यह घटनाएं घटित हो रही थी तब लखनऊ की नबाबी सेना भी बेगम हजरत महल की अगुवाई में कर्नल हंट के नेतृत्व वाली कंपनी सरकार की फौज को खोजनीपुर में करारी टक्कर दे चुकी थी। इसी घटना के आसपास महाराजा देवीबक्श सिंह , शंकरपुर ( जिला : रायबरेली ) के राजा राणा बेनीमाधव सिंह ,अमेठी रियासत ( वर्तमान अमेठी जनपद ) के राजा लाल माधव सिंह की संयुक्त सेना ने कर्नल हंट को उसकी ब्रिटिश फौज के साथ चौतरफा घेर लिया। इसके अलावा इस सेना की एक टुकड़ी ने निर्मली कुंड पर कंपनी सरकार की छावनी में मौजूद सेना पर जोरदार हमला बोल दिया। उनके सरकारी ‘ ग्रास फार्म ’ को आग के हवाले कर दिया। छावनी में पाए गए सभी फिरंगियों को मौत के घाट उतार दिया गया। इनमें से कुछ अपनी पत्नी और बच्चों के साथ गुप्तार घाट से डोंगियो द्वारा सरयू पार भागने का प्रयास किया लेकिन जमथरा घाट पर महाराजा देवीबक्श सिंह की सेना ने अपने छोटे से तोपखाने से जब इनके ऊपर गोलों की बौक्षार किया तो ये उसके निशाने पर आए या सरयू में कूदकर यमलोक की ओर प्रस्थान कर गए। उधर कर्नल हंट की अगुवाई वाली कंपनी सरकार की सेना को महाराजा देवीबक्श सिंह , राणा बेनीमाधव सिंह , अमेठी के राजा लाल माधव सिंह की संयुक्त सेना ने बुरी तरह से पराजित कर दिया। स्वयं राणा बेनीमाधव सिंह ने कर्नल हंट को उसके तमाम दुष्कर्मों के लिए प्रताड़ना देकर मार दिया। कर्नल हंट से इतनी ज्यादा घृणा थी कि इस संयुक्त सेना ने उसकी लाश को उल्टा टांग कर पूरे फैजाबाद में घुमाया था। इस लड़ाई में अयोध्या के बाबा राम चरण दास – अमीर अली के साथ – साथ महाराजा देवीबक्श सिंह की सेना की फैजाबाद इकाई की कमान संभालने वाले शंभू प्रसाद शुक्ला , अच्छन खान , बुझावन पाण्डेय आदि की प्रमुख रूप से भागीदारी थी।
वीरांगना बेगम हजरत महल के आग्रह पर क्रांतिवीर महाराजा देवीबक्श सिंह ने उनका दिया था साथ
अब की बार राजा स्वामी से मिला दो ,
चेरिया मैं ह्वोवैहोें तुम्हारी हो ।
लोकगीत की इस एक पंक्ति के जरिए प्रथम जनक्रांति 1857 में अद्भुत साहस, पराक्रम और समझ का परिचय देने वाली बेगम हजरत महल की क्रांतिवीर महाराजा देवीबक्श सिंह से व्यक्त की गई वेदना से परिपूर्ण भावनाओं को समझ सकते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में क्रांतिवीर महाराजा देवीबक्श सिंह की क्या भूमिका थी और कंपनी सरकार उनसे इतनी शत्रुत्ता क्यों रखती थी ? इतिहास के छुपाए हुए पन्नों में झांकने के बाद पता चलता है कि एक , दो या तीन नहीं कई बार कंपनी सरकार ने क्रांतिवीर महाराजा देवीबक्श सिंह को यह संदेश भेजा कि वे यदि बेगम हजरत महल का साथ छोड़ दे तो गोंडा रियासत सहित वे न केवल सुरक्षित रहेंगे बल्कि उनकी हैसियत बहुत ज्यादा बढ़ा दी जायेगी लेकिन वे एक अलग मिट्टी के बने थे। यह तय था कि बेहद आधुनिक शस्त्रों और भितरघातियों से सज्जित कंपनी सरकार से भिड़ने का अर्थ मिट्टी में मिल जाना है लेकिन इसके बावजूद महाराजा देवीबक्श सिंह ने कंपनी सरकार के गिरफ्त में आ चुके अवध के अंतिम नबाब वाजिद अली शाह की पत्नी वीरांगना बेगम हजरत महल का साथ नहीं छोड़ा। लखनऊ में कंपनी सरकार के खिलाफ जब वीरांगना बेगम हजरत महल ने मोर्चा खोला तब महाराजा देवीबक्श सिंह ने अपने 3000 चुनिंदा सैनिकों के साथ उपस्थित होकर लड़ाई में हिस्सा लिया।
प्लासी में हुई पराजय के बाद कंपनी सरकार कैसे भी संपूर्ण देश पर कब्जा करने का किया प्रयास जिसका होता रहा विरोध
23 जून 1757 को जब से राबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने प्लासी के मैदान में छल से भारतीय पक्ष को पराजित किया , उसके बाद से फिरंगी कैसे भी यहां की बागडोर अपने हाथ में लेना चाहते थे। इतिहासकार विलियम डेलरिंपल लिखते है कि यूनान के शासक ने जब 326 ईसा पूर्व भारत पर आक्रमण किया ,उसके बाद से ही भारत की अपार धन – संपदा पर संसार के दूसरे देशों की आंख गड़ गई। 100 साल तक कंपनी सरकार की फौजों ने युद्ध , साजिश , झूठ , धोखा , छल – प्रपंच , लूट – खसोट , हड़पों अभियान के जरिए संपूर्ण देश पर कब्ज़ा करने में लगे रहे। भारतीय उप महाद्वीप बिलकुल भी शांत नहीं बैठा था बल्कि एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक कंपनी सरकार का प्रतिरोध होता रहा जिसमें सन्यासी विद्रोह , चुआर विद्रोह, अहोम विद्रोह , पागलपंथी विद्रोह , बघेरा विद्रोह , सूरत का नमक आंदोलन , रमोसी विद्रोह , दीवान वेलु टंपी का विद्रोह आदि प्रमुख थे। प्रथम जनक्रांति 1857, ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ एक ऐसा जन प्रतिरोध था जिसका प्रभाव देश के हर हिस्से पर था।
संगठित लूट ही ईस्ट इंडिया कंपनी का एकमात्र लक्ष्य था जिसका अवध में स्वाभिमानी और पराक्रमी महाराजा देवीबक्श सिंह ने किया था विरोध
प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष 1857 के पूर्व की तात्कालिक स्थितियों का अध्ययन किया जाय तो राजनीतिक , सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक , सैनिक कारण संज्ञान में आते है जिसके चलते यह संभव हुआ। एडमंड बर्क ( Edmund Burke) ईस्ट इंडिया कम्पनी के बारे लिखता है कि ” यदि हमें भारत छोड़कर भागना पड़े तो हमारे शासन काल के शर्मनाक वर्षों की कहानी कहने के लिए जो प्रमाण बचे रहेंगे उससे यही पता चलेगा कि यहां शासन किसी भी अर्थ में चीते के शासन से अच्छा नहीं था। ” एडमंड बर्क ने कंपनी सरकार की जो तस्वीर प्रस्तुत किया है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोई भी देशभक्त और स्वाभिमानी नागरिक इस रूप में किसी भी परदेशी शक्ति को कैसे सहन कर सकता है। यही कारण है कि महाराजा देवीबक्श सिंह ने कंपनी सरकार के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई छेड़ा और जीवन के अंतिम दिन तक वे फिरंगियों के खिलाफ अभियान छेड़े रखा।
काट लिया गया था गोंडा के पहले पहले कलेक्टर का सिर
जनरल लार्ड डलहौजी ने हड़प – नीति ( Doctrine Of Lapse ) के तहत जब 11 फरवरी 1856 को अवध का अधिग्रहण किया , उसके बाद से कंपनी सरकार ने यहां का प्रशासन पूरी तरह से अपने हाथों में ले लिया। महाराजा देवीबक्श सिंह द्वारा शासित गोंडा रियासत भी इसी क्षेत्र के अंतर्गत आता था। कंपनी सरकार की सत्ता स्थापित होने के बाद कलेक्टर बनाए गए कर्नल व्यालू ने गोंडा के महाराजा देवीबक्श सिंह को कई बार संदेश भिजवाया कि वे आकर मिले जिसे उन्होंने नहीं स्वीकार किया। इधर तुलसीपुर( वर्तमान में बलरामपुर जनपद में स्थित ) की रानी ऐश्वर्य राजेश्वरी देवी उर्फ ईश्वरी देवी ने भी कंपनी सरकार के सामने घुटने टेकने से इंकार कर दिया। उनके पति राजा दृग नारायण सिंह को फिरंगियों ने धोखे से बंदी बना लिया था और लखनऊ में कैद कर रखा था। ईश्वरी देवी को भी कलेक्टर कर्नल व्यालू की ओर से यह निर्देश भेजा गया कि वे आकर मिले लेकिन उन्होने सीधे कंपनी सरकार से भिड़ने में तत्परता दिखाई। महाराजा देवीबक्श सिंह ने उन रियासतों से समन्वय बनाया जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरुद्ध थे और इसी क्रम में गोंडा – तुलसीपुर एक साथ आ गए। महाराजा देवीबक्श सिंह ने ईश्वरी देवी की सहायता के लिए अपने विश्वसनीय कमांडर फजल अली को तुलसीपुर भेजा , जो कि उनकी गोंडा इकाई की सेना की कमान संभालते थे। गोंडा में देशभक्त क्रांतिकारी सेना के दमन के प्रतीक बने कलेक्टर कर्नल व्यालू का सिर कमांडर फजल अली ने काटकर पेड़ पर लटका दिया। रानी तुलसीपुर ने अपने ढाई साल के पुत्र को पीठ में बांधकर कई बार ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौज से मुकाबला किया और आखिर में उनको नेपाल पलायन करना पड़ा। स्वतंत्र भारत में कंपनी सरकार को आमने – सामने से टक्कर देने वाली बहादुर और पराक्रमी रानी :तुलसीपुर( वर्तमान में बलरामपुर जनपद में स्थित ) की रानी ऐश्वर्य राजेश्वरी देवी उर्फ ईश्वरी देवी हो या फजल अली , इनके त्याग – बलिदान को भुला दिया गया।
कंपनी सरकार की नई व्यवस्था में गोंडा शहर में जिला मुख्यालय की स्थापना की गई और सकरौरा ( कर्नलगंज) में सैन्य कमान बनाई गई। गोंडा में महाराजा देवीबक्श सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी सेना ने छावनी में आग लगा दिया। कंपनी सरकार के अधिकारी – कर्मचारी मारे – पीटे जाने लगे।10 जून तक महाराजा देवीबक्श सिंह की नेतृत्व में गोंडा में ईस्ट इंडिया कंपनी का झंडा उतार दिया गया , गोंडा को स्वतंत्र करा लिया गया। कमिश्नर विंग फील्ड को राजा बलरामपुर की शरण में जाना पड़ा। राजा बलरामपुर : दिग्विजय सिंह को अवध शाही के नाजिम ने परेशान कर रखा था। उन्होंने वाजिद अली शाह के बाद बेगम हजरत महल के संरक्षण में उनके पुत्र बिरजिस कदर के हाथ अवध की बागडोर आई , उनकी ताजपोशी को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। 1857 के आसपास की जो परिस्थितियां थी और अवध की नबाबशाही से बलरामपुर के राजा दिग्विजय सिंह के मनमुटाव थे ,इसके चलते उन्होने क्रांतिकारियों के साथ जाने के बजाय कंपनी सरकार से मित्रता निभाने में ज्यादा रुचि दिखाई। जून माह में जब गोंडा में क्रांति की ज्वाला धधक रही थी तब बलरामपुर के राजा दिग्विजय सिंह ने कमिश्नर विंग फील्ड सहित सैकड़ों फिरंगी अफसरों – कर्मचारियों और उनकी महिलाओं – बच्चों को सुरक्षित गोरखपुर पहुंचवा दिया। कंपनी सरकार की फौज को नवंबर– दिसंबर 1858 तक महाराजा देवीबक्श सिंह की अगुवाई वाली क्रांतिकारी सेना से जूझना पड़ा और तब तक गोंडा– बहराइच में अस्थिरिता बनी रही।
एक श्रेष्ठ सेनापति , कुशल संगठनकर्ता के साथ – साथ लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था के स्वप्न को साकार किया था महाराजा देवीबक्श सिंह ने
एक कुशल सेनापति जिन्होने युद्ध में तकनीकी शस्त्रों : तोप – बंदूक का इस्तेमाल किया , एक महान संगठनकर्ता जिन्होंने गोंडा के अलावा अगल – बगल की रियासतों – क्रांतिकारियों को एकत्रित कर अपने झंडे तले ले आएं, ऐसे महाराजा देवीबक्श सिंह ने 1836 में गोंडा रियासत के सिंहासन पर बैठने के बाद बेहद कुशलता से राज्य का संचालन करने लगे। उन्होंने अन्य राजाओं से अलग कार्यनीति अपनाई। प्रशासनिक – न्यायिक –आर्थिक ढांचा को सही करने लगे। सरकारी अधिकारी – कर्मचारी रिश्वत लेने का साहस नहीं कर पाते। व्यापक रूप से न्यायिक सुधार किया और शिकायतकर्ता की नियमित सुनवाई करने लगे। महंगाई पर रोक लगी। कृषि यंत्रों के दाम कम हुए। अपने सुकृत्यों से उन्होंने अपनी रियासत की जनता को सुख – शांति का अनुभव कराया। महाराजा देवीबक्श सिंह की जन सरोकार की प्रवृत्ति के चलते उनकी लोकप्रियता गोंडा रियासत की सीमाओं से निकलकर चहुंओर फैलने लगी। गोंडा रियासत जब सुख – शांति की राह पर अग्रसर थी तब कंपनी सरकार के हस्तक्षेप से दुर्दिन की शुरुआत हुई।
राजा देवीबक्श सिंह का जब राज रहा।
तब क्या झंडा फहरात रहा।।
नेरे नेरे गांव रहा।
तो दूर दूर जोतास रहा।।
हंसिया खुरपी गिनती नाहीं।
पैसे फार निकात रहा।।
इस लोकगीत के जरिए महाराजा देवीबक्श सिंह के समय में जनता की मनोदशा को समझा जा सकता है। एक दूसरे लोक काव्य में लिखा गया है :
राजा देवी बकस लोह बंका , जिनका रत्ती भर शंका।
वहि बजवाय दीन है डंका ।
जब राजा के राज रहा, तब सुखी सबै संसार रहा ।
धान जुंधरिया, सांवा , कोदों , सस्ता भाव बिकाय रहा।।
घर कोरी से जोड़ा बिनावै , मुमरदों का पहिनाव रहा।
सिकिया पट्टाअडर बाफता औरत का पहिनाव रहा।।
थोरे दाम म बनै मिरजई , ओही मां मरजाद रहा।
राजा देवी बकस अस सुन्दर ,
उनके आगे सब लगै छछुन्दर ,
उनके चौरासी कोस मां रहै राज।
महाराजा देवीबक्श सिंह के राज में नहीं था धार्मिक एवं जातीय भेदभाव
एक शासक के रूप में महाराजा देवीबक्श सिंह ने धर्म – जाति के आधार पर प्रजा से कोई भेदभाव नहीं किया। उनके राज में हिंदू – मुस्लिम शांति के साथ रहते थे। उनकी अभेद नीति को ऐसे समझा जाय कि मुहर्रम के आखिरी दिन जब ताज़िए कर्बला की ओर जाते थे तब उनके सिंह द्वार पर आदर पाते थे।
जनक्रांति का नेतृत्व करने के नाते नष्ट हुआ राज्य और परिवार
प्रथम जनक्रांति 1857 में भागीदारी के पूर्व महाराजा देवीबक्श सिंह का पारिवारिक जीवन खुशियों से परिपूर्ण था। उनका पहला विवाह भदावर रियासत ( वर्तमान में आगरा जनपद में स्थित ) के महाराजा महेंद्र प्रताप सिंह ( 1803 – 1820 ) की सुपुत्री से और दूसरा विवाह पयागपुर ( वर्तमान में बहराइच जनपद में स्थित ) की राजकुमारी से हुआ था। कुछ पुस्तकों में चर्दा रियासत (वर्तमान में बहराइच जनपद में स्थित ) के राजा और प्रथम जन क्रांति 1857 के प्रमुख सेनानी जोत सिंह की बहन से होने का उल्लेख मिलता है। महाराजा देवीबक्श सिंह की पराजय के बाद उनकी प्रथम पत्नी ( भदावर की राजकुमारी ) ने फिरंगियों के द्वारा पकड़े जाने की संभावना को ध्यान में रखकर आत्महत्या कर लिया था। जब महाराजा देवीबक्श सिंह का नेपाल की तराई से कंपनी सरकार / फिरंगी सरकार से छापामार शैली में युद्ध चल रहा था तब उनके साथ उनकी एक रानी का उल्लेख मिलता है। बाद में यही रानी नेपाल में महाराजा देवीबक्श सिंह की मृत्यु के बाद उनका दाह संस्कार करके वापस पयागपुर रियासत में चली आती है और मृत्यु तक अपने मायके में रहती है। चांदी के सिक्के को अंगूठे और उंगली के बीच फंसाकर मरोड़ देने वाले गोंडा नरेश क्रांतिवीर देवीबक्श सिंह ने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। स्वतंत्रता के बाद गोंडा में राजा मनकापुर और जिला बोर्ड के अध्यक्ष ठाकुर नवरंग सिंह के सहयोग से रूपया 25000 की लागत से स्मारक के रूप में एक भवन बना। इधर कुछेक वर्षों से उनकी स्मृतियों को संजोने का स्थानीय स्तर पर प्रयास हो रहा है। इसके बावजूद सच यह है कि महाराजा देवीबक्श सिंह जैसे महान क्रांतिकारियों को आजादी के बाद वह सम्मान नहीं मिला जिसके वह सुपात्र थे। प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष का नेतृत्व करने के नाते उनके सहित उनके पूरे परिवार और गोंडा रियासत का अस्तित्व इतिहास के पन्नों में सिमट गया। गोंडा और अवध के इलाके में लोकमानस में वे एक अवतारी पुरुष के रूप में विद्यमान है , शायद यही उनकी नियति थी। नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में लेफ्टिनेंट कर्नल रहे एस.के. वर्धन ने कुछेक साल पहले कहा था , आजादी का असली इतिहास अभी तक नहीं लिखा गया है और युवा पीढ़ी इसे जानती भी नहीं।
*** नैमिष प्रताप सिंह